Thursday, October 7, 2010

Aaj phir dikhe...

आज फिर दिखे

कुछ जलते अलाव

कुछ भरते से घाव

कुछ पके हुए छाले

कुछ उजड़े पड़ाव.

एक अधखाई रोटी

कुछ रिसती आँखें

कुछ गालों के गड्ढे

कुछ मूंछों के ताव.

कुछ ज़ाया से घंटे

कुछ बच्चों के बंटे

कुछ चटकी तसवीरें

कुछ रेत की लकीरें.

पिघली पन्नी की बू,

पिछले महीने की लू

दलदल पे बैठी,

एक कागज की नाव.

एक बेईमान तराजू

एक उड़ती चप्पल

एक गांधी टोपी

होती पीली हर पल

उधड़ी बखिया वाली

नेहरु जैकिट

सोने की लंका में

नोटों के पैकिट

और रावण के हांथों में

शकुनी का दांव